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Sunday, 4 September 2022

क्या बिना जनाधार जम्मू-कश्मीर में अपनी बड़ी राजनीतिक परीक्षा से बच पाएंगे गुलाम नबी आजाद?

 

नई दिल्ली, 4 सितंबर। जम्मू-कश्मीर को लेकर राजनीतिक पंडितों के सामने बड़ा सवाल यह है कि क्या गुलाम नबी आजाद कांग्रेस से 52 साल बाद अलग होने के बाद फिर से सक्रिय होंगे या बाकी नेताओं की तरह नेपथ्य में चले जाएंगे?

उनके लिए चुनौतियां बहुत बड़ी हैं, इस मायने में कि वह कभी जननेता नहीं रहे। कांग्रेस में अपने 50 से अधिक वर्षो के सियासी सफर में उन्होंने संगठनात्मक व्यक्ति के रूप में सबसे अच्छा काम किया है। वह तीन बार चुनाव जीते हैं - दो बार लोकसभा के लिए (महाराष्ट्र के वाशिम से), और एक बार तत्कालीन जम्मू-कश्मीर विधानसभा में भद्रवाह के विधायक के रूप में।

अपने राजनीतिक जीवन के अधिकांश भाग के लिए वह राज्यसभा में थे, पांच बार उच्च सदन के लिए चुने गए थे। उन्होंने 1982 से कांग्रेस में सभी शीर्ष पदों पर कब्जा किया है और गांधी परिवार के करीबी रहे हैं।

आज जिस राज्य में कांग्रेस सत्ता में है, उसके लिए सोनिया-राहुल गांधी की आलोचना करने के बाद आजाद ने अपनी मातृ पार्टी से दूर होकर सुर्खियां बटोरीं, लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर या अपने गृह क्षेत्र जम्मू-कश्मीर में राजनीतिक हलकों में ज्यादा हलचल नहीं पैदा करता था।

कुछ नेताओं और कार्यकर्ताओं ने जम्मू-कश्मीर में कांग्रेस से इस्तीफा दे दिया, लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर या केंद्र शासित प्रदेश में कोई भी बड़ा नाम उनके समर्थन में नहीं आया। राष्ट्रीय स्तर पर भी जी-23 के किसी भी सदस्य ने उनका अनुसरण नहीं किया।

आनंद शर्मा, मनीष तिवारी और भूपिंद्र सिंह हुड्डा - इनमें से कोई भी उनके समर्थन में नहीं आया है। वास्तव में, जी23 नेताओं में से एक संदीप दीक्षित ने कहा कि उन्हें लगता है कि आजाद ने उनके समूह को धोखा दिया है।

दीक्षित ने कहा, दुर्भाग्यवश उनके पार्टी छोड़ने से उन नीतियों, प्रणालियों और लोगों को मजबूती मिली है, जिनमें सुधार के लिए हमने आलाकमान को पत्र लिखा था।

आजाद ने आलाकमान को लेटर बम भेजने के बाद इस्तीफा दिया। जम्मू-कश्मीर में भी उनके कई दोस्त और सहयोगियों ने इस्तीफा दिया। इस समय उनके कांग्रेस छोड़ने का पार्टी पर ज्यादा असर होने का अनुमान नहीं है।

पार्टी में सुधार के लिए सोनिया गांधी को पत्र लिखने वाले 23 कांग्रेसी नेताओं की अगुवाई आजाद ने की थी। लगभग दो साल बाद वह अब एक नई राजनीतिक यात्रा शुरू करने निकल पड़े हैं। उनकी यह यात्रा पहले से ही भाजपा के रंग से रंगी हुई है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए उनकी प्रशंसा ने इस कोण की पुष्टि की है।

आजाद के सभी राजनीतिक दलों में अच्छे दोस्त हो सकते हैं, लेकिन इसे राजनीतिक अवसर में बदलना एक बड़ी चुनौती हो सकती है। जनाधार की उनकी कमी एक प्रमुख कारक है जो चुनौतियों को कई गुना बढ़ा सकता है।

जम्मू-कश्मीर में चुनाव उनका पहला टेस्ट होगा। यहां क्षेत्रीय राजनीति हावी है और धार्मिक आधार पर विभाजन बहुत स्पष्ट है, ऐसे में एक धर्मनिरपेक्ष चेहरे के रूप में उनका प्रवेश एक नया आयाम जोड़ सकता है। फारूक अब्दुल्ला या महबूबा मुफ्ती या कश्मीर के अन्य नेताओं को पिछले कुछ दशकों में अलगाववादियों के प्रति नरम के रूप में देखा गया है और उन्हें जम्मू में पूर्ण समर्थन नहीं है।

दूसरी ओर, आजाद, जो जम्मू के भद्रवाह शहर के रहने वाले हैं, एक व्यवहार्य विकल्प बना सकते हैं। एक अच्छे ट्रैक रिकॉर्ड और एक गैर-सांप्रदायिक छवि के साथ एक धर्मनिरपेक्ष नेता, आजाद उस अंतर को भर सकते हैं जो यूटी में व्यापक रूप से खुला है। उनकी चुनौती भाजपा है, जिसका जम्मू में मजबूत आधार है, लेकिन कश्मीर में संघर्ष कर रही है।

भाजपा का कश्मीर में जनाधार का अभाव दोनों को एक साथ ला सकता है। आजाद की फारूक अब्दुल्ला से दोस्त हो सकती है या महबूबा मुफ्ती और अन्य के साथ अच्छे संबंध हो सकते हैं, लेकिन राजनीतिक रिंग में वे दोनों आजाद के प्रतिद्वंद्वी हैं। आजाद की अब्दुल्ला, मुफ्ती, सजाद लोन, अपनी पार्टी और निश्चित रूप से कांग्रेस के बीच कड़ी प्रतिस्पर्धा है।

पीपुल्स अलायंस फॉर गुपकर डिक्लेरेशन (पीएजीडी) को चुनौती देना एक और चुनौती होगी, क्योंकि यह यह संगठन स्वायत्तता के लिए अभियान चलाता है और जम्मू-कश्मीर के विशेष दर्जे को बहाल करने की मांग करता है। क्या आजाद उनके साथ खड़े होंगे?

एक चतुर राजनेता, आजाद जानते हैं कि एक सफल जम्मू-कश्मीर मिशन उन्हें राष्ट्रीय मंच पर ले जा सकता है। यही उनकी सबसे बड़ी चुनौती भी है।

कश्मीर का मैदान आसान खेल नहीं है और आजाद इस बात को भली-भांति जानते हैं।

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